Article on Women Empowerment named "Naari In Detail" By Shubhrasut || Hindi article.

" Naari In Detail "

By "Shubhrasut"

Part - 1

नारित्व के वर्णन की चेष्टा है, किंतु नारी का अस्तित्व एवं व्यक्तित्व इतना विराट है कि मैं तो क्या कोई भी पुरुष उसका पूर्ण विवरण नहीं कर सकता।एक छोटा सा प्रयत्न है और आशा हैआप का सहयोग मिलेगा।🙏


स्त्री वह है जो जीवन के प्रथम अध्याय अर्थात भ्रूणावस्था से ही समाज की घृणा व कोपभाजन की अधिकारिणी हो जाती है। उसके जन्म से पूर्व ही उसके ही परिवार के सदस्यों द्वारा बेटी ना पैदा होने की कामना की जाने लगती है।

जीवन के दूसरे पड़ाव में वह संसार में जन्म लेती है तो उसका स्वागत करते हैं आँसुओं और उदासी से, उसके हर रस्म-ओ-रिवाज मात्र जैसे तैसे अनमने मन से बस निपटा ही लिए जाते हैं।और यदि किसी पिशाची मानसिकता के व्यक्ति के द्वारा उसका शरीर व आत्मा छलनी नहीं किया जाता तो फिर...

तीसरा अध्याय शुरू होता है एक छात्रा के रूप में, जहाँ वह विद्यालय की दूरी बस इसी प्रार्थना के साथ तय करती है कि वह उसी पवित्रता के साथ घर वापस पहुँचे, जो वह सहेज के निकली थी। बस किसी तरह वह बिना किसी कामपिपासु की नज़रों में आए अपनी सपनों की उड़ान भर सके। परन्तु उसका दुर्भाग्य वो कितना भी अच्छा प्रदर्शन करे, उसके भविष्य के नाम पर उसके विवाह के ही संसाधन जुटाए जाने लगते हैं, मानो पराई अमानत का बोझ ज्यादा ही बढ़ गया हो।साथ ही वह कन्या से नारी बनने की ओर कदम बढ़ाती है और गुज़रती है ऐसे दर्द से जिसे वह खुद ही समझ सकती है, तब समाज का एक और भयावह रूप दिखता है जब उसके दर्द को अपवित्रता का नाम देकर उसे मानसिक तनाव भी भेंट किया जाता है।

चौथे चरण में बेटी से अब वो बहु के रूप में, पत्नी के रूप में नया जन्म पाती है और फिर दूसरों की खुशी के लिए पीड़ा सहने की अपनी रीति के अनुसार अपने पति को सुख की प्राप्ति कराने हेतु व वंश वृद्धि के दायित्व की पूर्ति के लिए अत्यधिक पीड़ा का प्रसन्नता से वहन करती है।

पाँचवें चरण मृत्यु के समान पीड़ा झेलकर वह माँ बनती, यदि पुत्री का जन्म हुआ तो वह फिर से वही कटु अनुभव अपनी आँखों के सामने देखती है जो वह झेल चुकी है।

और यदि पुत्र का जन्म होता है तो लाद दी जाती है भौतिक संसाधनों से, मात्र एक पुत्र की माँ के रूप में ना कि एक स्वतंत्र अस्तित्व में।

 Part - 2 में जारी



Naari in Detail

Part - 2

पहले अंश में हम नारी जीवन के पाँच अध्यायों में उसके जीवन की दशा या यूँ कह लें दुर्दशा की चर्चा कर चुके हैं।

किन्तु पंचम पडाव का एक पहलू अभी शेष है, यह कि यदि वह माँ ही नहीं बन पाती, शिकार होती है उनका, जो उससे आशा लिए बैठे हैं ,यह मायने बिल्कुल नहीं रखता कि इस पीड़ा में दोषी वह स्वयं है या फिर उसका जीवनसाथी अयोग्य है पिता बनने हेतु, दोष, धिक्कार और क्रोध की अधिकारिणी वह अकेले ही होती है। आश्चर्य इस बात का है कि कभी कभी तो वह उस पति के हाथों हिंसा का शिकार होती है जिसमें स्वयं में ही दैहिक दोष हो।नितप्रति अवहेलना व मनहूसियत का ठेका उसके सिर फोड़ा जाता है।

और अब छठे दौर की ओर.....

यह वह बेला है जब वह उस संतान से बिछड़ती है, जिसे नौ महीने तक अपने खून से सींच कर ,मौत से लड़कर दुनिया में लाती है, बड़े नाज़ों से पालती पोषती है या तो उसे पढ़ाई के लिए या रोजगार के लिए या फिर जीवन के नए रास्ते पर हमराह के साथ चलने के लिए एक माँ अपने अंश को खुद से दूर करती है, अब आप इसे जरूरी भी समझ सकते हैं और मजबूरी भी।

सप्तम अध्याय में भी वह सतत त्यागमूर्ति ही बनी रहती है।और न्यौछावर कर देती है अपनी हर सहेजी हुई पूँजी को अपने बच्चों की शिक्षा अथवा रोजगार या उनके सुखमय वैवाहिक संबंधों के लिए।

और आशा लगा लेती है आँगन में नौनिहालों की किलकारियों के लिए।

और इस ढलती उम्र में कभी कभी अपनी शारीरिक अक्षमताओं के कारण एक दूसरी स्त्री यानी अपनी ही पुत्रवधू की उपेक्षा का शिकार होती है।

कामना करती है वह अपने सुहाग से पहली यह दुनिया छोड़ दे और जीवन के अंत ईश्वर अधिकतर उसकी कामना पूरी करते हुए उसे यह तथाकथित सौभाग्य दे देता है।

किंतु यदि ऐसा नहीं हो पाता तो फिर से रह जाता है उसका जीवन एकाकी और बिखरा किसी पतझड़ के समान।

फिर से एक जबरन जिंदगी रह जाती है ताने और उलाहने सुनने को।

आशा है मेरे विचारों को आपकी सहमति और समर्थन प्राप्त होगा ।

धन्यवाद🙏🏻


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